इन्द्राणी त्रिवेदी1*, सरस्वती देवी2
1असिस्टेण्ट प्रोफेसर, मानव चेतना एवं योग विज्ञान विभाग, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, गायत्रीकुंज, हरिद्वार, (उत्तराखण्ड), भारत
2असिस्टेण्ट प्रोफेसर, आयुर्वेद एव समग्र स्वास्थ्य विभाग, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, गायत्रीकुंज, हरिद्वार, (उत्तराखण्ड), भारत
*संवादी लेखक: इन्द्राणी त्रिवेदी. ईमेल: [email protected]
सारांश. भारतीय संस्कृति एवं ज्ञान के मूल आधार यज्ञ व गायत्री हैं। वेद हमारे ज्ञान का स्रोत रहे हैं, वेद के विषय पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि वेद का मुख्य केन्द्रबिन्दु यज्ञ ही रहा है। प्राचीनकाल से ही यज्ञ की महिमा का गुणगान विभिन्न वैदिक वाड.मय ने किया है। वेदों के मंत्रों से यज्ञ के स्वरूप व महिमा गूंजित होती है। यज्ञ द्वारा अनेक लाभ प्राप्त किये जाते रहे हैं, भौतिक स्तर, आध्यात्मिक स्तर अथवा राष्ट्रीय स्तर की समस्याएँ हो, स्वास्थ्य संबंधी किसी भी रोग से ग्रसित हो, सभी
में यज्ञ का प्रत्यक्ष लाभ हो सकता है। यज्ञ केवल कर्मकाण्ड तक ही नहीं अपितु जीवन दर्शन तक विस्तृत है, यज्ञ से हमें श्रेष्ठ कर्मो की प्रेरणा भी मिलती है। इन सभी तथ्यों का वर्णन वेदों में किया गया है किन्तु वर्तमान में हम इन वैदिक ज्ञान से पूर्णरूप से भिज्ञ नहीं है अतः आवश्यकता है कि हम वैदिक ज्ञान में निहित यज्ञ के स्वरूप से भलिभाँति परिचित हों। यह शोध पत्र इन्हें उद्देश्यों को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किया गया।
कूट शब्द. वेद, यज्ञ, समग्र विकास।
प्रस्तावना
भारतीय धर्म में यज्ञ को पिता व गायत्री को माता की संज्ञा दी गई है (1)। यही भारतीय संस्कृति के आधाररूप हैं। चाहे प्रयोजन कोई भी हो, किसी भी प्रकार के अभीष्ट की प्राप्ति करनी हो सभी का मूल यज्ञ ही रहा है, आत्मसाक्षात्कार, स्वर्गप्राप्ति, बंधन मुक्ति, पाप-प्रायश्चित्त, आत्मबल संवर्द्धन हो या फिर सर्वार्थ ऋद्धि-सिद्धियों की प्राप्ति हो, स्वास्थ्यलाभ हो, भौतिक उन्नति का ही क्षेत्र क्यों न हो, सभी की प्राप्ति यज्ञ द्वारा संभव है। प्राचीन ऐतिहासिक धरोहर के रूप में यज्ञ की अपनी विशिष्ट महत्ता है जिसके माध्यम से ऋषिगण विभिन्न प्रकार के भौतिक व आध्यात्मिक स्तर के परिणाम प्राप्त करते रहे हैं। आयुर्वेद के ग्रंथों में तो यहाँ तक कहा गया है कि जिन्हें आरोग्य लाभ की इच्छा हो उन्हें विधिवत हवन करना चाहिए। इसी प्रकार मन, बुद्धि के शुद्धिकरण करने की तथा वातावरण परिशोधन करने की भी यज्ञ में अपूर्व शक्ति है।
संपूर्ण भारतीय वाड.मय में यज्ञ का विशद वर्णन मिलता है। वेद, उपनिषद, स्मृति, ब्राह्मण, संहिता, पुराण, महाभारत, रामायण आदि सभी शास्त्रों में यज्ञ का विस्तृत वर्णन मिलता है। गीता में यज्ञ को आवश्यक कृत्य बताया गया है। यज्ञ को मानव जीवन में यज्ञीय कर्म के रूप में अपनाने का निर्देश दिया गया है। राजा दशरथ को यज्ञ के द्वारा ही चार पुत्र प्राप्त हुए थे। यज्ञ द्वारा ही धन, सौभाग्य, वैभव, दीर्घायु, यश, कीर्ति, तथा अनेक अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति होती है। यज्ञ में केवल आत्मिक प्रगति नहीं अपितु राष्ट्र की प्रगति भी निहित है। यज्ञ द्वारा आसपास के वातावरण का भी शोधन होता है जिससे अनेक रोगों का शमन होता है।
‘‘शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हि सीः।
नि वत्र्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्तवाय सुवीर्याय‘‘।
यजुर्वेद (2) की एक इस प्रार्थना में कहा गया है कि हे यज्ञ आप निश्चित ही कल्याणकारी हैं। साक्षात् परमेश्वर ही आपके पिता हैं, आपको नमस्कार है। आप हमें दीर्घायु, उत्तम अन्न, ऐश्वर्य समृद्धि, प्रजनन शक्ति, बल व पराक्रम दें। हम आपका आहवान पूजन करते हैं ।
इसी तरह की प्रार्थना यजुर्वेद में अन्यत्र भी उल्लेखित है। यज्ञ से हमें अन्न सम्पदा, ऐश्वर्य, पुरूषार्थ, प्रबन्ध क्षमता, बुद्धि कौशल, निर्णय क्षमता, कत्र्तव्य परायणता, यश सम्पदा, श्रवण शक्ति, आत्मशक्ति की प्राप्ति हो (3)। इसी प्रकार अन्यत्र भी विभिन्न ग्रंथों में देवताओं की प्रसन्नता हेतु भी यज्ञ से प्रार्थना की गई है। देवताओं की कृपा मात्र से मनुष्य अनेक सिद्धियों को हस्तगत कर सकता है (4)। मानव ही नहीं दानवों ने भी अभीष्ट की प्राप्ति हेतु यज्ञाग्नि से ही प्रार्थना की थी।
वेद ज्ञान के आधार रूप हैं (5)। वेद में विश्व का ज्ञान समाहित है। वेद का अर्थ है ज्ञान। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, तथा अथर्ववेद इन चारों वेदों में यज्ञ, धर्म, कर्म, भक्ति, ज्ञान, योग साधना, बंधन-मुक्ति, स्वर्ग प्राप्ति व आत्मसाक्षात्कार आदि अनेकों गूढ़ विषय वर्णित हैं। यजुर्वेद का मुख्य विषय यज्ञ है। वेदों में यत्र तत्र विभिन्न प्रार्थनाओं के रूप में यज्ञ देव की महिमा का उल्लेख प्राप्त होता है। किसी भी प्रकार की कामना हो, आत्मिक प्रगति, भौतिक प्रगति तथा विश्व के कल्याण की भावना हो, सभी की उपलब्धि यज्ञ द्वारा निश्चय ही होती थी। अतः यज्ञ को जीवन का अभिन्न अंग मानते हुए उसकी नियमित उपासना की जानी चाहिए। निश्चित ही यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म माना जाता रहा है। इसी सन्दर्भ के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत शोध पत्र के अंतर्गत वेदों में निहित यज्ञ के स्वरूप व उसकी महत्ता का अंशतः वर्णन किया जा रहा है।
यज्ञ का अर्थ
यज्ञ शब्द की उत्पत्ति यज् धातु से हुई है। यजुर्वेद हिन्दू धर्म का एक पवित्र व महत्वपूर्ण ग्रन्थ है और चारों वेदों में से एक है। इस वेद में यज्ञ के समय में उच्चारित किए जाने वाले मंत्रों को युजस कहा जाता है। युजस के नाम पर ही इस वेद को युजस- वेद--यजुर्वेद कहा गया है। यज् अर्थात् समर्पण। पदार्थ जैसे -ईधन, घी आदि, कर्म जैसे- सेवा, तर्पण आदि, के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया बताया गया है। सम्पूर्ण लोक यज्ञ की धूरी पर अवलम्बित है अतः यज्ञ को इस लोक का केंद्र कहा गया है (6)।
वैदिक यज्ञ व्यापक अर्थो का वाचक है। ऋग्वेद के पुरूषसूक्त 10/19 में वर्णित है कि यज्ञमय परमात्मा ही संसार की उत्पत्ति का मूल है (7)। शर्मा (8) के शब्दों में यज्ञ का अर्थ त्याग, बलिदान और शुभकर्म है। शारीरिक व मानसिक रोगों, आत्मिक विकृतियों का उपचार, साथ ही वातावरण संशोधन, सद्भावना का विस्तार वनस्पति संवर्द्धन जैसे बहु आयामी पक्ष यज्ञ शब्द की सार्थकता को सिद्ध करते हैं (9)। गीता (10) में यज्ञ का तात्पर्य मनुष्य को बंधन से मुक्त कराने वाले कर्मो के रूप में बताया गया है। पालीवाल (11) के अनुसार यज्ञः चेतना जिगाति अर्थात् यज्ञ मनुष्य के अंदर चेतनता जगाती है। जिस प्रकार क्षुधित बालक माता की यथायोग्य उपासना करते हैं उसी प्रकार से सभी प्राणी अग्निहोत्र की उपासना करते हैं (12)।
वेदों में यज्ञ का स्वरूप व महत्ता
वेद भारतीय ज्ञानगंगा के उत्स हैं। वेद अर्थात् ऐसा दीप्तिपुंज ,जो अपने दिव्यप्रकाश से स्वयं ही भासित है और जिसके माध्यम से सभी भारतीय वाड.मय प्रकाशित हैं। वेद सम्पूर्ण वाड.मय का बोधक शब्द है (13)। त्रिपदा गायत्री मेें तीन पदों के रूप में वदेत्रयी ऋग, साम और यजुर्वेद को माना गया है। इन्हीं का प्रतिपादन विभिन्न रूपों में सभी शास्त्रों में किया गया है, ज्ञान, भक्ति व कर्म की त्रिविध धाराएँ, सत्, चित्, आनंद की स्थिति, इन सभी का वर्णन वैदिक ज्ञान में निहित है। शास्त्री (14) के मत में वैदिक ऋषियों ने आत्मतत्व को पहचाना एवं वैदिक साहित्य का प्रधान विषय यज्ञ को ही बताया (15)।
वेद शब्द की निष्पत्ति ‘‘विद् ज्ञान’’ धातु से हुई है। इस प्रकार वेद का शाब्दिक अर्थ है- ज्ञान का भण्डार। वैदिक ज्ञान का मुख्य विषय यज्ञ है। यज्ञ ही ऐसा माध्यम है जिससे ज्ञान की अनेकों धाराएँ प्रवाहित होती है। ऐसा कहा जा सकता है कि यज्ञ में ही पूरे विश्व ब्रह्माण्ड का ज्ञान समाहित है।
मानव जीवन में यज्ञ की महत्ता का प्रतिपादन वैदिक सन्दर्भ में निम्नांकित बिन्दुओं के अंतर्गत किया जा सकता है-
यज्ञ एक शुभ कृत्य है अतः किसी भी कार्य के पूर्व यज्ञ का विधान भारतीय संस्कृति में एक मांगलिक कर्म के स्वरूप में बताया गया है जिसमें सभी प्रकार का मंगल निहित होता है।
यजुर्वेद (16) की ऋचा में कहा गया है कि हे यज्ञ देव आप को नमस्कार है, आप स्वयंभू परमेश्वर के पुत्र हैं आप हमारी रक्षा करें, हमें बल पराक्रम और शक्ति प्रदान करें, दीर्घ आयु, उत्तम अन्न, श्रेष्ठ पुत्र, प्रजनन शक्ति, ऐश्वर्य समृद्धि दें, इस हेतु हम आपकी आराधना करते हैं। इसी प्रकार यजुर्वेद में अन्यत्र भी यज्ञाग्नि से प्रार्थना की गई है कि - हे यज्ञ तुम पृथ्वी को सींचने वाले हो अर्थात् आपसे ही समस्त पृथ्वीवासियों का सर्वांगीण विकास होता है। देवताओं को भी सुख प्रदान करने वाले हो। आप ही सभी प्रकार से रक्षा करने वाले हो, अतः हम आपकी उपासना करते हैं (17)।
यज्ञ का सेवन करने वाला व्यक्ति अपने संसाधनों का विकास कर यश वैभव में वृद्धि कर सकता है। इस प्रकार की प्रार्थना का उल्लेख यजुर्वेद (18) मंत्रों में मिलता है- हे यज्ञाग्ने आपको हम आदित्य यज्ञ, वसुयज्ञ एवं रूद्र यज्ञ के द्वारा बारम्बार प्रदीप्त करें। आप ऐश्वर्य को प्राप्ति कराने वाले हैं इन यज्ञों से आप हमारी कामना पूर्ण करो। गार्हपत्य अग्नि आप पोषण करने वाले हैं, प्रजा को ऐश्वर्य प्रदान करते हैं अतः हे गृहपति अग्निदेव आप हमें सभी प्रकार के ऐश्वर्य, यश एवं बल प्रदान करें (19)। ऋग्वेद की ऋचा में वर्णित है कि अग्निदेव, आपको आहुति द्वारा हम प्रसन्न करके पुष्टि, कीर्ति, वीरत्व, ऐश्वर्य की प्राप्ति करें (20)।
यज्ञ का साधन करने से ऊर्जा का उर्द्धगमन होता है जिससे प्राण अपान की एकता स्थापित होती है। इसका उल्लेख वेदों में इस प्रकार है- यज्ञ की अग्नि का प्रकाश प्राण से अपान तक फैलता है। यह यज्ञीय प्रभाव भौतिक लाभ ही नहीं आंतरिक स्तर तक होता है। आतंरिक स्तर पर प्राण व अपान में एकत्व होने के कारण दिव्य लोक गमन का मार्ग प्रशस्त होने लगता है (21)।
श्रीमद्भग्वदगीता (22) में श्रीकृष्ण भगवान ने कहा है कि यज्ञ करने से देवता प्रसन्न होते हैं और उन्नति व वृद्धि प्रदान करते हैं। इसी प्रकार का वर्णन यजुर्वेद (23) की प्रार्थना में मिलता है- यज्ञ द्वारा अन्न की वृष्टि होती है, धन की प्राप्ति होती है जिससे शक्ति संवर्द्धन होता है। हे पुरीष्य अग्नि आप हमारे बलमें वृद्धि करें।
यज्ञ से समग्र सुख शान्ति की प्राप्ति होती है। साथ ही अनेक प्रकार के रोग चाहे वे शारीरिक हो, मानसिक हो या फिर आध्यात्मिक स्तर के रोग हों, यज्ञ से अवश्य ही लाभ प्राप्त होता है। इस भाव की अभिव्यक्ति वेद में निम्न प्रकार से की गई है- हे यज्ञ आप सुख प्रदाता हैं, हम आपके आश्रय में हैं, आपसे अनेकों रोग विनष्ट होते हैं। आप पृथ्वी की रक्षा करने वाले हो जैसे शरीर की रक्षा त्वचा से होती है उसी त्वचा की भाँति आप रक्षक हो (24)। हे यज्ञ देव आप तो देवता के भोजन हैं अतः आप उन्हें प्रसन्न करें (25), वे देवता हमें सुख और कल्याण प्रदान करें, अतः आपके अनुग्रह से हमें आयु, बल व समग्र लाभ की प्राप्ति हो। हे यज्ञपुरूष आपके अग्निरूपी शरीर के लिए हविष्य के रूप में प्रयुक्त होने वाली औषधियों से सामथ्र्य शक्ति उत्पन्न होती है। अर्थात् उन औषधि विषेष के द्वारा अनेकानेक रोग दूर हो जाते हैं (26)।
हे यज्ञदेव आप शरीर की रक्षा करने वाले हैं, आयु प्रदान करें, आप हमें तेज प्रदान करें। जहाँ भी विषमता, दोष व अशुद्धता हों, आप उन्हें बाहर निकाल कर हमें शुद्धता दें और पूर्णता प्रदान करें (27)।
द्विवेदी (28) के कथनानुसार यज्ञ से ही आनन्द संभव है। अथर्ववेद (29) में भी इसका वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है- हे अग्निदेव शरीर त्यागने के पश्चात हम स्वर्गधाम में प्रसन्नतनपूर्वक रहते हुए आनन्दित हों।
हम यज्ञाग्नि की ज्योति के माध्यम से परमात्मा की ज्योति को धारण कर परमात्माग्नि की ज्योति में अपना ध्यान कंन्द्रित करेंगें जिससे हमारे अंदर आत्मा की ज्योति का परमात्मा की ज्योति से संपर्क बढेगा और हमारी आत्म ज्योति और अधिक ज्योतिर्मय हो उठेगी जिससे मनुष्य में आत्म ज्योति से परमात्म ज्योति की प्राप्ति की महत्ता यज्ञाग्नि के द्वारा पूर्ण होगी (30)।
10.शु़द्ध एवं पवित्रता की प्राप्ति
शुद्धा पूता भवत यज्ञियासः अर्थात् हे यज्ञकर्ताओं ! तुम शुद्ध पवित्र होओ। स्पष्ट है कि साधक को यज्ञ के माध्यम से पवित्रता की प्राप्ति होती है (31)।
उपंसहार
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वेदों में विभिन्न स्थानों पर यज्ञ की महिमा का गुणगान किया गया है। वेद समस्त भारतीय साहित्यों का आधार है तथा वेद में यज्ञ का विशद वर्णन मिलता है। मानव जीवन में प्रधानरूप में दो प्रकार की कामनाएँ होती हैं- पहली अभीष्ट प्राप्ति और दूसरी अनिष्ट से निवृत्ति। अन्य शब्दों में इन्हीं को अभ्युदय व निःश्रेयस कहा जा सकता है। इस प्रकार चाहे किसी भी प्रकार का भौतिक लाभ हो या आध्यात्मिक लाभ हो, सभी की प्राप्ति का एक सशक्त साधन यज्ञ है। यज्ञ में परमार्थ परायणता का भी रहस्य समाया हुआ है अतः विश्व कल्याण का शुभ कार्य भी यज्ञ द्वारा संभव होता है जिससे मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष भी सुलभ हो पाता है।
संदर्भ