यज्ञ : भारतीय संस्कृति के मनोवैज्ञानिक मूल्यों का सार्वभौमिक संवाहक

1डॉ. ईप्सित प्रताप सिंह, 2शालिनी राठौर

1*सहायक प्राध्यापक, भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार, उत्तराखण्ड

2मनोवैज्ञानिक – परामर्शदाता, गायत्री विद्यापीठ, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)

* पत्र-व्यव्हार लेखक: ईप्सित प्रताप सिंह. ईमेल: ipsit.singh@dsvv.ac.in

सारांश. यज्ञ प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति का आधार रहा है । हमारे आर्ष ग्रन्थ बड़ी ही मजबूती के साथ यज्ञ के महत्व का एक स्वर में गान करते है । भारत वर्ष सदा से अपने उत्कृष्ट मनोवैज्ञानिक मूल्यों के लिए जाना जाता रहा है । प्रस्तुत शोध पत्र में उन्ही मनोवैज्ञानिक मूल्यों के संवाहक के रूप में यज्ञ की भूमिका स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । शोधपत्र में सैद्धांतिक आधार पर यज्ञ की श्रेष्ठता को वास्तविकता के धरातल पर सिद्ध करने का विनम्र प्रयास किया गया है । संगतिकरण, सामजिक समरसता, आन्तरिक अभियांत्रिकी एवं व्यक्तित्व विकास जैसे अनेक व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक मूल्य व्यक्ति में विकसित होते है, जिनका सुस्पष्ट प्रभाव समाज पर दृष्टिगोचर होता है । यज्ञ मात्र कर्मकांड तक सीमित प्रक्रिया नहीं है, अपितु यह उससे कहीं अधिक, व्यक्ति एवं समाज का बहुमुखी विकास करने का अचूक साधन है । वेदों से लेकर आधुनिक वैज्ञानिकों तक सभी ने यज्ञ की उर्जा को विभिन्न पैमानों पर मापकर सही पाया है । वर्तमान समय में संसाधनों से अधिक मनोबल की आवश्यकता है, और हमारी इस आवश्यकता को यज्ञ से बेहतर कोई पूर्ण नहीं कर सकता । यज्ञ में मौजूद अग्निशक्ति, मंत्र शक्ति एवं समूह शक्ति का समायोजन क्रांतिकारी बदलाव लाने में सक्षम है।

कूट शब्द.यज्ञ, मनोवैज्ञानिक मूल्य, संगतिकरण, सामाजिक समरसता, व्यक्तित्व विकास।

 

प्रस्तावना

यज्ञ भारतीय संस्कृति का प्रतीक है । भारतीय संस्कृति में जितना महत्व यज्ञ को दिया गया है, उतना और किसी को नहीं । हमारा कोई भी शुभ–अशुभ धर्मकार्य इसके बिना पूर्ण नही होता । जन्म से मृत्यु तक सभी संस्कारो में यज्ञ आवश्यक है । 

यज्ञ का अर्थ है ‘पुण्य परमार्थ – उच्च कोटि का स्वार्थ ही परमार्थ है । उससे लोक कल्याण भी होता है और बदले में अपने को भी श्रेय, सम्मान, सहयोग आदि का लाभ होता है । यज्ञ एक अध्यात्मिक उपचार है, जिससे लौकिक एवं पारलौकिक सुख–शांति का द्वार खुलता है । यज्ञ से सूक्ष्म दिव्य शक्तियाँ बलवान होती है, जिससे प्राणी मात्र को विशेष लाभ होते है । यज्ञ हमे स्थूलता अर्थात् अज्ञानता से सूक्ष्मता अर्थात् ज्ञान की ओर ले जाता है । आज हम बुरे को बुरा जानते हुए भी, उसे छोड़ नहीं पाते और अच्छे को अच्छा समझते हुए भी उस पर आचरण नहीं कर पाते, क्योंकि स्थूल को महत्व देने के कारण हमारा सूक्ष्म शरीर क्षीण हो गया है । इसी सूक्ष्म शरीर को सबल बनाने का साधन है - यज्ञ (1)।

सूक्ष्म शरीर के विकास से मनोवैज्ञानिक मूल्यों का विकास होता है । ये मूल्य हमारे व्यक्तित्व को श्रेष्ठता की ओर ले जाते है । यज्ञ के कर्मकांड एवं दर्शन में ऐसे तत्वों का समावेश किया गया है, जिससे मनुष्य में मनुष्यता के मूलभूत लक्षण जागृत – जीवंत हो सके । संगतिकरण, सामाजिक समरसता, पर्यावरण के प्रति जागरूकता, उत्तम मानसिक स्वास्थ्य, श्रेष्ठ व्यक्तित्व आदि ऐसे सामान्य मनोवैज्ञानिक लक्षण है, जो यज्ञ के माध्यम से प्रकट होते है (2)।

 

यज्ञ का मूलभूत उद्देश्य : संगतिकरण

यज्ञ बलिदान शब्द से बना हैं, जिसमें देवपूजा, संगतिकरण और दान का संकेत है । विद्वानों जैसे दयानंद सरस्वती, जयदेव, धर्मदेव, ब्रह्ममुनी, वीरेंद्र और अन्य लोगों के नेतृत्व में यज्ञ के विषय में वैदिक टिप्पणी और अनुवाद पूरी तरह से इस अवलोकन को दर्शाते हैं । स्वामी दयानन्द ने अग्निहोत्र से लेकर यज्ञ तक सभी प्रकार के यज्ञ करने का उपदेश दिया । हालांकि, उनकी अवधारणाओं और व्याख्या की विधि के अनुसार विभिन्न यज्ञ समारोहों में नियोजित मंत्रों की व्याख्या है । उन्होंने यज्ञ के अनेक मनोवैज्ञानिक लाभों को निर्दिष्ट किया है । यज्ञ के महत्व को समझाते हुए वे बताते है, कि देश की सुरक्षा, रखरखाव और समृद्धि का हेतु ये प्रक्रिया अत्यंत आवश्यक है और देश के सभी क्षेत्रों में प्रगति से लेकर आत्मा उद्धार तक, सभी की प्राप्ति यज्ञ से संभव है (3)।

 

सामाजिक समरसता के मूल्यों का विकास

यज्ञ सर्वसाधारण को प्रेम, परोपकार और संयम सदाचार की शिक्षा देता है । अग्नि की तरह प्रकाशवान और ज्वलंत बनाना, संपर्क में आने वालों को अपने में आत्मसात कर लेना, सदा प्रकाशवान और प्रखर रहना, जो उपलब्ध है उसे लोक मंगल के लिए बिखेर देना, विषम परिस्थितियों में भी घटिया आचरण न करना, आदि प्रेरणाएं अग्नि के क्रिया – कलाप से मिलतें है । इसलिए यज्ञाग्नि को ईश्वर स्वरुप मानकर हम पूजते है । इस पूजा का प्रयोजन उपर्युक्त आदर्शों को जीवन में घुला लेना भी है । जीवन को यज्ञ जैसा सुगन्धित और मंगलमय बना लेने की प्रेरणा यज्ञ आयोजन से मिलती है । ये प्रेरणाएं जितनी अधिक व्यापक बन सकें, उतना ही व्यक्ति एवं समाज का कल्याण एवं उत्थान होगा।

यज्ञ का आयोजन भारतीय संस्कृति की उत्कृष्टता के अभिवर्धन का महत्वपूर्ण उपचार है । सामाजिक समरसता के मूल्यों को बढावा देने में यज्ञ मुख्य भूमिका निभाने में सक्षम सिद्ध हो सकता है । ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा अथर्वेद में प्रश्न पुछा गया है, “मैं तुमसे पूछता हूँ कि सम्पूर्ण जगत को बाँधने वाली वस्तु कौन है ?” इसका उत्तर दिया गया है, “यज्ञ ही इस विश्व – ब्रह्माण्ड को बाँधने वाला है ।” समाज के प्रत्येक ताने बाने को जोड़कर रखने का कार्य यज्ञ ही करने में सक्षम सिद्ध हो सकता है।

हमारे शास्त्रों में अनेक जगह यज्ञ को सामाजिक समरसता के संवाहक के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यथा – ‘विश्वशांति का सर्वश्रेष्ठ आधार यज्ञ ही है’ (ऋग्वेद 10/66/2)। ऐसे समय में जब परिवार एवं समाज अशांति से पीड़ित है, तब यज्ञ समाधान के रूप में द्रष्टिगोचर होता है । ऋग्वेद में ही कहा गया है, की ‘यज्ञ में दी हुई आहुतियाँ समाज के लिए कल्याणकारक होती है’ (ऋग्वेद 15/38) । इसलिए यदि हम सम्पूर्ण समाज का हित चाहते है, तो हमे यज्ञ अवश्य करना चाहिए । कल्कि पुराण में लिखा है, कि यज्ञों में सारा संसार प्रतिहित है । पृथ्वी यज्ञ से धारण की हुई है । यज्ञ ही प्रजा को तारता है । यह समझने में जरा भी देर नहीं लगनी चाहिए, की हमारे शास्त्र एक स्वर में यज्ञ की जय – जयकार करते है (4)।

यज्ञ का मूलभूत दर्शन समाजिक स्नेह के धागे को मजबूत करने की बात करता है । सामाजिक समरसता राष्ट्र के विकास की कुन्जी के रूप में कार्य कर सकती है । भारत एक बहुलतावादी देश है, जहाँ अनेक मतों के लोग साथ मिलकर रहते है । ऐसे में यज्ञ का वास्तविक दर्शन समझकर हमारी समरसता एवं समस्वरता को बढाया जा सकता है।

 

स्थूल एवं सूक्ष्म पर्यावरण के प्रति जागरूकता

बीसवीं सदी का आगाज़ दो खूनी विश्व युद्धों का सामना करते हुए हुआ है । उस समय क्रूरता और भयावहता की ऊंचाइयों से भरें और भारी बर्बरता के दृश्य इतने भयानक थे कि शैतान की आत्मा भी उन्हें देखकर शर्मसार होती । विश्व स्तर पर विनाशकारी दो युद्धों के अलावा, विश्व में सैकड़ों अन्य स्थानीय और क्षेत्रीय युद्ध हुए हैं; जैसे - हंगरी, कोरिया, वियतनाम, इज़राइल, और इराक-ईरान आदि में। भारत का विभाजन, हिरोशिमा और नागासाकी पर बमबारी हमले, इत्यादि अन्य दुखद घटनाएं थीं, जो भयावह होने के साथ साथ क्रूरता की सारी हदें तोड़ने वाली सिद्ध हुई थी । विज्ञान के गौरवशाली प्रगति के बावजूद, आज मानव जीवन में उपलब्ध कराए जाने वाले संसाधन भयंकर रूप धारण किये खड़े है । आधुनिक युग की प्रारंभिक शताब्दी में सूक्ष्म वातावरण का दूषित प्रवाह बढ़ गया है । स्थूल तत्वों के साथ सूक्ष्म पर्यावरणीय तत्व आज प्रदूषण की चपेट में है । मनुष्य का शरीर एवं विचार दोनों ही इसकी चपेट में है।

यज्ञ को हम इस अहम घडी में आवश्यक मनोवैज्ञानिक मूल्यों के पुनर्स्थापक के रूप में देख सकते है । जब यज्ञ को दैवीय वैदिक संस्कृति के पिता के रूप में सम्मानित किया जाता है, तो गायत्री की माँ की रूप में पूजा की जाती है । सर्वशक्तिमान माँ गायत्री एवं यज्ञ का संयोजन अनन्त है । जीवन को शानदार बनाने के लिए मौलिक सिद्धांत के रूप में यज्ञ एवं गायत्री को अपनाना अनिवार्य है । यज्ञ की दो धाराएं है - ज्ञान और विज्ञान । यज्ञ के ज्ञान का अर्थ है - सच्चे ज्ञान, गहरे दर्शन, प्रबुद्धता, बुद्धिमत्ता, उदारता और न्याय आदि। और विज्ञान के अर्थ में शामिल हैं - प्रतिभा, समृद्धि, निपुण संसाधनों का विकास, शक्ति, और क्षमता निर्माण । सूक्ष्म एवं स्थूल दोनों के संतुलित और सामंजस्यपूर्ण विकास को यज्ञ परंपरा सुनिश्चित करती है । प्राचीनकाल में आम जनता से लेकर राज - घरानों और आश्रमों तक सबके द्वारा यज्ञ संपादित किया जाता था । सभी सम्मानित ज्ञानियों ने इन्हें अपने स्तर पर श्रेष्ठ रूप से अपनाने का प्रयास किया था ।

आज सभी ओर प्रदूषण की व्यापक समस्या है, वस्तुओं से लेकर व्यक्तियों तक सभी इससे प्रभावित है । सब्जियां, फल और अनाज की प्राकृतिक पौष्टिक शक्ति कम हो गयी है एवं धीरे-धीरे मिट्टी की उर्वरता की गिरावट आ रही है । इसके अलावा सिंथेटिक रसायनों का विषाक्त प्रभाव कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों का कारण बन रहा है । आज औद्योगीकरण से वास्तव में क्रांतिकारी बदलाव आया है, परन्तु इसके साथ साथ प्राकृतिक संसाधनों की खपत और पारिस्थितिक संतुलन के बीच परेशानी में भी वृद्धि हुई है। 

यज्ञ का एकीकृत विज्ञान भी समाज के समग्र विकास के लिए अद्वितीय है । प्रबुद्ध वर्ग की जिम्मेदारी है कि वे दुनिया को आदर्शों की दिशा में प्रेरित करें। जहाँ एक ओर वैज्ञानिक रूप से तैयार किए गए यज्ञ-कुण्ड बाह्य पर्यावरण के लिए उपयोगी सिद्ध होंगे, वहीं मन्त्रों के प्रभाव सूक्ष्म जगत को बदलने में अहम भूमिका निभाएंगे । इसके अगणित मनोवैज्ञानिक लाभ भी समाज के प्रत्येक अंग को मिलते है । साधकों द्वारा वैदिक मंत्रों की और यज्ञ की विशाल ऊर्जा एक विशेष वातावरण उत्पन्न करती है (5)।

 

मानसिक स्वास्थ्य की उत्कृष्टता हेतु मनोवैज्ञानिक मूल्यों का विकास

यज्ञ ही मनुष्य के मन को शुद्ध, पवित्र और निर्मल बनाने का मुख्य साधन है, इस सम्बन्ध में वेद में कहा गया है, कि ‘ हे प्रभो हम मन को सुमन अर्थात पवित्र और सुन्दर बनाने के लिए प्रतिदिन देवों का यजन करने वालें हों ऋग्वेद 1/173/2 (4)। अथर्ववेद में प्रातः एवं सांय यज्ञ करने का आदेश देते हुए उसकी महिमा का वर्णन किया गया है (अथर्ववेद 19/55/3) (6)।

वेदों का वर्णन हमारे समक्ष स्पष्ट करता है, कि यज्ञ द्वारा हम अपने अपने मन को स्वस्थ बनाकर मानसिक स्वास्थ्य का विकास कर सकते है । प्रतिदिन यज्ञ करने से यजमान के ह्रदय पटल पर श्रद्धा का भाव और अधिक बढता जाता है । जब यजमान यज्ञ द्वारा शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शांति का अनुभव करता है, तो ह्रदय में पंचमहायज्ञ आदि नित्यकर्मों के लिए श्रद्धा, विश्वास तथा आस्था का अंकुर उदय होने लगता है । और श्रद्धा उसकी मेधा के साथ साथ उसके मानसिक स्वास्थ्य का विकास करती है (7)।

 

विश्व शान्ति के मनोवैज्ञानिक बीजों का रोपण

मनुज देह से अशुद्ध वायु, पसीना, मल - मूत्र आदि निकलते रहने के कारण वायुमंडल दूषित होता रहता है, इसके अतिरिक्त मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नाना प्रकार के पदार्थों तथा धूम्र व भाप आदि के यंत्रों से वायु जल में विकृति उत्पन्न करता रहता है, जिससे अनेक रोगों की वृद्धि होती है, वहीं दूषित जल सूर्य के द्वारा आहरण होकर फिर वर्षा रूप में हमे प्राप्त होता है । यज्ञ करने वायु हल्की होकर ऊपर उठती है, वायु की गति में तीव्रता आ जाती है, इस कारण पहली अशुद्ध वायु बाहर निकल जाती है और उसके स्थान पर बाहर की शुद्ध वायु प्रवेश करती है । अग्नि में भेदक शक्ति होने के कारण इसमें डाला हुआ घृत तथा अनेक प्रकार की औषध - मिष्ट पदार्थ छिन्न भिन्न होकर सूक्ष्म रूप में वायु के साथ दूर दूर पहुच जाते है । हमारी नासिका के द्वारा यह विज्ञान सदैव प्रत्यक्ष होता रहता है (7)।

महर्षि यास्क ने वेदार्थ प्रक्रिया के अनुपम ग्रन्थ निरुक्त में वेदार्थ की महत्ता सिद्ध करते हुए कहा है, कि ‘यज्ञ ज्ञान’ को वेद के पुष्प के रूप में प्रतिपादित किया है और यज्ञ की हवि व सोम से इंद्र को तृप्त करते हुए वर्षा की याचना की है । (निरुक्त 1/30) (8)। शतपथ ब्राह्मण (5/3) में कहा गया है कि यज्ञाग्नि से जो धुआं उत्पन्न होता है, वह वनस्पतियों के रस में मिश्रित होकर उनका पोषण करता हुआ ऊपर जाता है और सूर्य के द्वारा आकर्षित जल में मिलकर ऋतु के अनुकूल वृष्टि होने में निमित्त बनता है । भगवान् कृष्ण ने गीता में भी कहा है, कि यज्ञ से मेघ बनते है और यज्ञ कर्म से प्रादुर्भूत होता है (श्रीमद्भगवद्गीता 3/14) (9)।

अभी मनुष्य जाति नाना प्रकार के अभावों, कष्टों, चिंताओं, पीडाओं, भयों, उलझनों एवं आवेशों से ग्रसित हो रही है । व्यक्तिगत रूप से एवं सामूहिक रूप से सभी परेशान है । समाज का संगठन अनैतिक तत्वों की भरमार से छिन्न भिन्न हो रहा है । ऐसे हालात में सूक्ष्म जगत को बदलना बहुत ही महत्वपूर्ण है । सूक्ष्म जगत को बदलने में सबसे अहम भूमिका यज्ञ ही निभा सकता है एवं विश्व शांति के मनोवैज्ञानिक बीजों का रोपण कर सकता है । शांति का आरंभ ‘शांति – समझौतों’ से नहीं अपितु ज्ञान बीज से मनोवैज्ञानिक मूल्यों का विकास करके संभव है (7)।

 

आंतरिक अभियांत्रिकी के परिष्करण से श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण

श्रेष्ठव्यक्तित्व के निर्माण के लिए आन्तरिक अभियांत्रिकी को समझना बेहद महत्वपूर्ण है । यज्ञ की वैज्ञानिक प्रक्रिया इस शिक्षा को अधोरेखित करती है और परोपकारी, उदारवादी की भावनाओं को बढाने के साथ साथ व्यक्तित्व का विकास करती है । मानवीय व्यक्तितित्व का विकास, सामाजिक विकास और सभ्यता की प्रगति के लिए निर्णायक है । यज्ञ का दर्शन आदर्शों को सक्षम करने के लिए प्रभावी तरीके और क्षमता प्रदान करता है । जीवन के सभी क्षेत्रों का विकास जैसे व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक मोर्चों पर, सूक्ष्म से लेकर पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र तक, यज्ञ को आधार मानकर ही किया जा सकता है । आज की प्रतिकूल परिस्थितियों से मुकाबला करने के लिए एवं इस अन्धकार को अपने प्रकाशवान व्यक्तित्व से काटने के लिए यज्ञमय जीवन को ग्रहण किया जाना चाहिए (5)।

वेद ने यज्ञ का मुख्य लाभ प्राणी मात्र में प्राण शक्ति अर्थात् जीवन शक्ति का संचार है । जहाँ भी अग्नितत्व प्रधान पदार्थ का निवास होता है, वहाँ जीवनी शक्ति का वास होता है । यज्ञकर्ता दिन प्रतिदिन शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक शक्तियों से पुष्ट होता जाता है (ऋग्वेद 3/1/3)। यज्ञ आंतरिक अभियांत्रिकी की व्यवस्था को समायोजित करके जीवन क्रम को स्थिर करता है । इस प्रकार यज्ञकर्ता का व्यक्तित्व शिखर पर पहुँच जाता है (4)।

 

उपसंहार

इस समस्त संसार के क्रियाकलाप यज्ञ रुपी धुरी के चारों ओर चल रहे है । ऋषियों ने यज्ञ को भुवन की इस जगती की सृष्टि का आधार बिन्दु कहा है (अथर्ववेद 9/15/14) (6)। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है, कि यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो (श्रीमद्भगवद्गीता 3/10) (9)।

वास्तव में यज्ञ भारतीय संस्कृति के आधारभूत मनोवैज्ञानिक मूल्य जीवन को यज्ञमय बनाने की प्रेरणा सदा से देता रहा है । दुर्भाग्य से समय के साथ साथ इसके प्रयोग में कुछ विकृतियाँ आयी है, जिसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह महत्वहीन हो गया है । यज्ञ के मनोवैज्ञानिक मूल्यों की जितनी आवश्यकता आज है, उतनी शायद ही इतिहास में कभी रही होगी । यज्ञ जीवन जीने की श्रेष्ठतम विज्ञानसम्मत पद्धति है, यह जानने समझने के बाद, किसी भी प्रकार का संशय किसी के भी मन में, भारतीय संस्कृति की अनादि काल से मेरुदंड रही इस व्यवस्था के प्रति नहीं रह जाता।

 

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

  1. ब्रह्मवर्चस, संपादक. यज्ञ: एक समग्र उपचार प्रक्रिया (पं श्रीराम शर्मा आचार्य वांग्मय 26) (प्रथम संस्करण). अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा -281003.1994
  1. गुप्ता, एस. के. धी आर्य समाज स्कूल ऑफ़वैदिक स्टडीज. एनल्स ऑफ़ धी भंडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट. 1977; 58/59:645-657.http://www.jstor.org/stable/41691734 से पुनर्प्राप्त
  1. विडे. दयानंदा इंटरप्रिटेशन ओन यज्ञ (दूसरा संस्करण).आर्य प्रकाशन, नई दिल्ली. 1926
  1. शर्मा श्री, शर्मा भ, संपादक. ऋग्वेद संहिता (संशोधित संस्करण). युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट, गायत्री तपोभूमि, मथुरा-281003. 2013.
  1. पंडया, पी. हमारा यज्ञ अभियान (प्रथम संस्करण). श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट, शांतिकुंज, हरिद्वार, उत्तराखंड. 2001
  1. शर्मा श्री, शर्मा भ, संपादक.अथर्ववेद संहिता (संशोधित संस्करण). युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट, गायत्री तपोभूमि, मथुरा-281003. 2014
  1. ब्रह्मवर्चस, संपादक. यज्ञका ज्ञान विज्ञान(पं श्रीराम शर्मा आचार्य वांग्मय 25) (प्रथम संस्करण). अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा -281003. 1994 
  1. आप्टे वि, संपादक. निरुक आनंद आश्रम मुद्रणालय, पुणे. 1926
  1. श्रीमद्भगवद्गीता.गीताप्रेस गोरखपुर-273005. सत्रहवां संस्करण. 2010