भारत में आध्यात्मिक पर्यटनके परिप्रेक्ष्य में यज्ञ की भूमिका, महत्व एवं संभावनाएं

आशीष कुमार1*, मोनिका पाण्डेय2, एस. के. काबिया3

 

1*शोधार्थी, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार

2सहायक प्राध्यापक, पर्यटन प्रबंधन विभाग, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार

3प्राध्यापक, निर्देशक, पर्यटन एवं होटल प्रबंधन संस्थान, बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झाँसी

*संवादी लेखक: आशीष कुमार. Email: ashish.pawar@dsvv.ac.in

 

सारांश. भागदौड़ भरी जिन्दगी, आपाधापी भरा जीवन एवं व्यस्त दिनचर्या के चलते व्यक्ति अपने जीवन के कुछ पल शान्त एवं प्राकृतिक सौन्दर्ययुक्त स्थान पर बिताना चाहता है, किन्तु कहाँ और कैसे? इन्ही समस्याओं से मुक्ति एवं पर्यटकों को उनके अवकाश का सदुपयोग करवाने हेतु पर्यटन व्यवसाय आज दिन दूनी व रात चैगुनी प्रगति करता जा रहा है एवं आज यह विश्व का एक महत्वपूर्ण उद्योग बन गया है। पर्यटन का ही एक स्वरुप हैं आध्यात्मिक पर्यटन। आध्यात्मिक पर्यटन पर्यटकों को मनोरंजन यात्रा के साथ-साथ जीवन के प्रति सकारात्मक द्रष्टिकोण देता हैं। पर्यटक अपने स्थान से कहीं दूर आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिए यज्ञीय वातावरण को प्राथमिकता प्रदान करता है। आध्यात्मिक पर्यटन का महत्वपूर्ण घटक यज्ञ है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का मूल है। इस शोध पत्र का लक्ष्य प्राचीन एवं आधुनिक भारत में आध्यात्मिक पर्यटन के उद्देश्यों को उद्घाटित करना एवं यह करने के लिए यज्ञ को एक उपकरण के रूप में चिन्हित किया गया है। प्राचीन एवं आधुनिक भारत में विभिन्न यज्ञों की परम्परा रही है। यज्ञ के माध्यम से पर्यटन का नवीन स्वरूप समाज के समक्ष प्रस्तुत होता है एवं पर्यटक स्वास्थय, नवीन प्रेरणा, उत्साह एवं आनन्द की प्राप्ति करता है।

कूट शब्द. आध्यात्मिक पर्यटन, यज्ञ, प्राचीन एवं आधुनिक भारत

 

प्रस्तावना

आज इस भौतिकवादी समय में अधिकतर लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हैं। हर क्षेत्र में जहाँ व्यक्ति भौतिक सुख के लिए साधन तो प्राप्त कर लेता है परन्तु उसके साथ ही उसकी सुख-शांति, स्वास्थ्य का अभाव होने लगता हैं तथा अशांति व कई बीमारियाँ स्वतः ही उपहार स्वरुप प्राप्त होने लगती हैं। इन सब दुष्प्रभाव के कारण आज लोग धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो रहे है। आजकल हर क्षेत्र में अध्यात्म का प्रवेश हो रहा है फिर चाहे वो पर्यटन हो, स्वास्थ्य हो या फिर बड़े-बड़े औद्योगिक क्षेत्र हो। बड़े शहरों में जहाँ व्यक्ति रात-दिन काम में व्यस्त है वहाँ अब ऐसे संस्थान बन एवं बढ़ रहे हैं जहाँ आकर व्यक्ति आध्यात्मिक क्रियाओं द्वारा अपना शारीरिक व मानसिक संतुलन बना कर, नई ऊर्जा प्राप्त कर सके तथा नई क्षमताओं के साथ दैनिक जीवन के कार्य करता रहे। यहीं से धीरे-धीरे आध्यात्मिक पर्यटन की शुरुआत हुई जो प्राचीन समय में तीर्थयात्रा के रुप में प्रचलित थी।

भारत की भूमि आध्यात्मिक रही है। आध्यात्मिकता इसके कण कण में समाहित है। कृष्ण, राम, बुद्ध, गुरूनानक देव, महावीर, सूरदास, कालीदास, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि रमण, महर्षि अरविन्द आदि आध्यात्मिक महापुरूषों की विशाल श्रृंख्ला ने भारत देश को आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत रखा है। भारतीय संस्कृति ने पर्यटन के आज के स्वरूप को तीर्थ परम्परा का नाम दिया था। तीर्थ वह स्थान अथवा उस वातावरण को कहते है जहाँ से मानव जीवन को जीवन्त और मुखर बनाने की शिक्षा ग्रहण करता है।

सनातन हिन्दू धर्म में यज्ञों का बड़ा महत्व माना गया है। वेदों का जो महत्व है, वही महत्व यज्ञों को भी प्राप्त है क्योंकि वेदों का प्रधान विषय ही यज्ञ है, जैसे कि न्यायदर्शन (4।1।63), मनुस्मृति (1।23), सिद्धान्त शिरोमणि (गणिताध्याय, मध्यमविकारस्थ कालमानाध्याय 9 पद्य) गोपथब्राह्मण (1।4।24), भगवद्गीता (4।32) आदि ग्रंथों में यज्ञ एवं तीर्थ का महातम्य बतलाया गया है।

 

साहित्य मत

डॉ. अरूणेश पाराशर (2010) ने विस्तार से स्वास्थय पर्यटन पर कार्य किया है और वह अपनी शोध में पर्यटन का उद्देश्य आनंद, मनोरंजन एवं ज्ञान के लिए की गई यात्रा को बताते है (1)। 

राजेश व्यास (2010) ने अपनी पुस्तक ‘‘पर्यटन उद्भव एवं विकास 2010’’ में इन्होंने पर्यटन के उद्भव एवं विकास, पर्यटन प्रेरणा तथा पर्यटन उद्योग के प्रमुख अवयव पर्यटन की आधारभूत सुविधाओं एवं राज्य के विभिन्न स्तरों पर पर्यटन के प्रभावों को सरल रूप से समझाते हुए बताया है कि तीर्थाटन से प्रारम्भ पर्यटन की सोच में अब पर्यटन के नये रूप विवाह पर्यटन, सम्मेलन पर्यटन, साहसिक पर्यटन, क्रूज पर्यटन, भू-पर्यटन, चिकित्सा पर्यटन जुड़ चुके हैं। पर्यटन अब घूमने फिरने की क्रिया मात्र नहीं रह गया है बल्कि यह विदेशी मुद्रा अर्जन का सबसे बडा स्त्रोत, सर्वाधिक रोजगार देने वाला प्रमुख उद्योग है इस प्रकार इन्होंने पर्यटन को नये सन्दर्भों में सामाजिक आन्दोलन बताया है (2)।

शिक्षा पारिख (2012) ‘‘इस आधुनिकतम समय में भी भारत में आध्यात्मिक पर्यटन का क्षेत्र तेजी से विस्तृत हो रहा है। ऐसे में तीर्थस्थल हों, पवित्र नदियां हों अथवा महापुरूषों की जन्मस्थलियां व तपस्थलियां हों - पर्यटन की दृष्टि से सभी का ध्यान आकर्षित करते है (3)।’’

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य (1998) ‘‘तीर्थ यात्रा का उद्देश्य है - आत्मशुद्धि, पिछली भूलों का प्रायश्चित और भावी जीवन को अधिक पवित्र परिष्कृत बनाने का व्रत धारण करना” (4)।

स्वामी रामसुखदास (2011) ‘‘यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्’’ अर्थात ‘‘निष्काम भाव पूर्वक दूसरों को सुख पहुँचाने से समता का अनुभव हो जाना ही ‘यज्ञशिष्ट अमृत’ का अनुभव करना है। कर्तव्यमात्र केवल कर्तव्य समझकर किया जाय, तो वह यज्ञ हो जाता है” (5)।

कुमार सुभाष (2009) ‘‘यज्ञ से तात्पर्य है अतिथि का सत्कार या सम्मान करना। अतिथि उसे कहा जाता है जो दूसरे ग्राम का है, और जो एक दिन से ज्यादा समय वहाँ रहता है” (6)।

पं. काशीनाथ शास्त्री (2006) “आरोग्य प्राप्त करने की इच्छा करने वालों को विधिवत् हवन करना चाहिए। ”बुद्धि शुद्ध करने की यज्ञ में अपूर्व शक्ति है” (7)।

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य (1998) के अनुसार चेतन पक्ष को सुनियोजित-सुसंस्कृत बनाने की विधा को अध्यात्म कहते हैं (8)।

श्रद्धेय डॉ. प्रणव पंड्या (2011) - उन्होंने यज्ञ को प्रमुखता देते हुए बताया है कि यज्ञ कर्म की अविरल धारा का प्रतीक है। जिसने यह सीख लिया, उसका जीवन सुख-भोग भटकावों के बीच भी कभी अस्त-व्यस्त नहीं होंगा, वह निर्लिप्त भाव से एक दिव्य-कर्मी बन अपने जीवनपथ पर यात्रा को और सरल बना सकेंगा (9)।

 

प्राचीन भारत में आध्यात्मिक पर्यटन एवं यज्ञ

प्राचीन काल में ऋषियों, महर्षियों एवं संतों ने आध्यात्मिकता के साथ यज्ञ का समन्वय किया था। यज्ञ के लाभों को भली प्रकार समझा था। इसीलिए वे उसे समाज एवं लोक कल्याण का बहुत ही महत्वपूर्ण एवं आवश्यक कार्य समझ कर समय समय पर यज्ञ के आयोजन करते थे जिसमें समाज के विभिन्न वर्गो के लोग ज्ञान प्राप्ति, व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं का समाधान यज्ञ के माध्यम से व्यापक रूप से करते थे। स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना उनका प्रधान कर्म था। जब घर-घर में यज्ञ की प्रतिष्ठा थी तब यह भारत भूमि स्वर्ण सम्पदाओं की स्वामिनी थी। लोक कल्याण एवं ईश्वर की आराधना के लिए यज्ञ किया जाता था। यज्ञ में कर्म की प्रधानता होती थी। आत्म साक्षात्कार, स्वर्ग, सुख, बन्धन मुक्ति, मनः शुद्धि, पाप प्रायश्चित, आत्म बल वृद्धि और ऋद्धि सिद्धियों के केन्द्र भी यज्ञ ही थे। अश्वमेध यज्ञ, राजसूय, नरमेध यज्ञ, विष्णु यज्ञ आदि का प्रचलन था जो आज भी अनवरत चला आ रहा है। तीर्थ यात्री जब यज्ञीय वातावरण में जाता था एवं यज्ञ करता था तब उसे अनेक आध्यात्मिक एवं भौतिक शुभ परिणाम प्राप्त होते थे। वेद मन्त्रों के साथ-साथ शास्त्रोक्त हवियों (अग्नि में डाली जाने वाली हवन सामग्री) के द्वारा जो विधिवत हवन किया जाता था उससे एक दिव्य वातावरण की उत्पत्ति होती थी। उस वातावरण में बैठने मात्र से तीर्थ यात्री को स्वास्थय लाभ होता था। जिन तीर्थ यात्री के मस्तिष्क दुर्बल होते थे या बुद्धि मलीन होती थी वे यज्ञ करके अनेकों मानसिक दुर्बलताओं से शीघ्र ही दूर हो जाते थे।

संजय कृष्णा (2013) प्राचीन काल से ही भारत समृद्धशाली संस्कृति एवं विशाल विरासत वाला राष्ट्र रहा है। यहाँ विविधता में एकता है। यहाँ के कण-कण में एक आध्यात्मिकता है। प्रत्येक स्थान-स्थान पर महापुरुषों, संत, समाज सुधारकों, शहीदों एवं भगवान के भ्रमण के स्थान मिलते है। इसलिए इन स्थानों को आध्यात्मिक पर्यटन के रूप में जाना जाने लगा (10)। दक्षिण भारत कई धार्मिक तीर्थ स्थानों का केन्द्र है। तिरुपति, भगवान वेंकटेश्वर का निवास स्थान है एवं यह सबसे अधिक दर्शनीय धार्मिक केंद्र है। श्रीशैलम, श्री मल्लिकार्जुन का निवास, भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है, अमरावती का शिव मंदिर पंचाराममों में से एक, तथा यादगिरिगुट्टा, विष्णु के अवतार श्री लक्ष्मी नरसिंह का निवास स्थान है। वारंगल में रामप्पा मंदिर और हजार स्तंभों का मंदिर, कतिपय बारीक मंदिर नक्काशियों के लिए प्रसिद्ध हैं। अमरावती, नागार्जुन कोंडा, भट्टीप्रोलु, घंटशाला, नेलकोंडपल्ली, धूलिकट्टा, बाविकोंडा, तोट्लकोंडा, शालिगुंडेम, पावुरालकोंडा, शंकरम, फणिगिरि और कोलनपाका में कई बौद्ध केंद्र हैं।

हिमालय में बसे चार-धाम, चार सबसे पवित्र और श्रद्धा युक्त मंदिर बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री हैं। अमृतसर में स्वर्ण मंदिर भारत के सबसे सम्मानित गुरुद्वारों में से एक और सिक्खों का सबसे पवित्र स्थान है। उड़ीसा- धर्म, अध्यात्म, कला, संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्य का जीवंत उदाहरण है। आदि आदि पर्यटन स्थल पर्यटकों के लिए प्राचीन समय से ही एक पसंदीदा स्थल रहे है।

 

आधुनिक भारत में आध्यात्मिक पर्यटन

आध्यात्मिक पर्यटन किसी विशेष धर्म से संबंधित ना होकर समस्त धर्मों का समन्वय हैं। यह एक ऐसा पर्यटन है जहाँ व्यक्ति आत्मशोधन व आत्म परिष्कार के लिए यात्रा करता है। यह स्थान विशेष के वातावरण तथा वहाँ चल रहे क्रियाओं द्वारा परिवर्तित व्यक्तित्व से संबंधित है। आध्यात्मिक पर्यटन संस्थान के महत्व तथा वहाँ चल रहे क्रियाओं के महत्व को दर्शाता है। यह स्थान मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा अथवा चर्च आदि से तथा उनसे संबंधित क्रियाएँ तथा नदी किनारे पर बैठकर साधना करना या पर्वत यथा गोवर्धन, गिरनार, सतपुड़ा, विंध्याचल आदि की परिक्रमा भी हो सकती है।

 

र्यटन का प्रयोजन

गतिविधि

उदाहरण

शिक्षण केन्द्र के रूप में

गुरूकुल, आरण्यक, आश्रम और देवालय

नालन्दा, तक्षशीला, रामकृष्ण मठ, चारधाम

चिकित्सा केन्द्र के रूप में

यज्ञ, योग, पंचकर्म, प्राकृतिक चिकित्सा

अश्वमेध, कुम्भ मेला, योग प्रशिक्षण

गृहस्थों के लिए

स्वाध्याय एवं सत्संग

गुरू दर्शन, मार्गदर्शन एवं परामर्श

बालकों के लिए

संस्कार स्थापनाएँ

नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ,

दीक्षा आदि संस्कार

प्रकृति के सानिध्य में

पर्वतारोहण, जल क्रीडा, भ्रमण

हिमालय, गंगाघाट

पर्व एवं त्योहार का आयोजन

कृष्ण जन्माष्ठमी, गणेश उत्सव, दुर्गा पूजा

उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल

तैत्तिरीयोपनिषद के शिक्षावल्ली के ग्यारहवे अनुवाक के अनुसार ‘‘अतिथि देवो भवः‘‘ की उक्ति में आध्यात्मिक पर्यटन का विशाल स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। भारतीय पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये वर्ष 2003 में ‘‘अतिथि देवो भवः‘‘ को अतुल्य भारत के अंतर्गत इस्तेमाल करना प्रारम्भ किया गया ताकि विभिन्न देशों से लोग भारत में पर्यटन करने आए। नवीन संदर्भ में आध्यात्मिक पर्यटन स्थल से तात्पर्य ऐसा स्थल, जहाँ व्यक्ति अपनी आंतरिक चेतना के विकास की प्राप्ति करता है न की किसी धर्म या धार्मिक व्यक्ति से संबंधित स्थल की। आध्यात्मिक पर्यटन सार्वभौमिक तत्व है और इसका अनुसरण करने वालों का किसी विशेष धर्म से संबंधित होना जरूरी नहीं। इस दृष्टि से भारत भूमि पर अनेक ऐसे पर्यटन स्थल हैं जहाँ कुछ समय गुजारने पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिष्कार होने लगता है, उसमें लोक-कल्याण के भाव तरंगित होने लगते हैं। इस विषय का सबसे बड़ा पर्यटन स्थल हिमालय क्षेत्र माना जा सकता है जहाँ रहकर अनेक संत, महात्माओं, ऋषियों, विदेशी पर्यटकों, साहित्यकारों, पर्वतारोहियों और पर्यटकों आदि ने आध्यात्मिक पर्यटन का लाभ प्राप्त किया है। उन्होंने हिमालय के उस आध्यात्मिक वातावरण से साहस, शौर्य, पराक्रम, विपरित परिस्थितियों में रहने के गुणों को विकसित किया (11)।

 

 

आध्यात्मिक पर्यटन में यज्ञ की भूमिका, महत्व एवं संभावनाये

महर्षि दयानंद ने पांच यज्ञों को महायज्ञ कहा है। जो कि ब्रह्मयज्ञ, देव यज्ञ, मातृपितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ हैं। इसमें अतिथि यज्ञ के माध्यम से हम यज्ञ की उपादेयता को आध्यात्मिक पर्यटन के संदर्भ में जान सकते है। यज्ञ से आध्यात्मिक पर्यटन के उद्देश्यों की प्राप्ति होती है इसे निम्न बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता हैः- सामान्यतः यज्ञ के तीन प्रमुख उद्देश्य होते है:- देवपूजा, दान और संगतीकरण। देवपूजन का अर्थ हैं - उपासना, साधना, आराधना. दान का अर्थ हैं समय, साधन, श्रम, एवं प्रतिभा का सुनियोजन. संगतिकरण का अर्थ है- संगठन।

यज्ञ को सत्कर्मो का प्रतीक माना गया हैं। यज्ञ का एक प्रमुख उद्देश्य धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को सत्प्रयोजन के लिए संगठित करना भी है। यज्ञों का वास्तविक लाभ सार्वजनिक रूप से, जन सहयोग से सम्पन्न कराने पर ही उपलब्ध होता है। यज्ञ शुद्ध होने की क्रिया है। इसका संबंध अग्नि से प्रतीक रूप में किया जाता है। यज्ञ के पर्यायवाची के रूप में अग्नि और घी के प्रतीक का प्रयोग किया जाता है। आयुर्वेद और औषधीय विज्ञान द्वारा वायु शोधन के कारण इसे यज्ञ की उपमा दी गई है।

अधियज्ञोअहमेवात्र देहे देहभृताम वर ॥ 4/8 श्रीमद्भगवतगीता - शरीर या देह के दासत्व को छोड़ देने का वरण या निश्चय करने वालों में, यज्ञ अर्थात जीव और आत्मा के योग की क्रिया या जीव का आत्मा में विलय, मुझ परमात्मा का कार्य है (11)।

यज्ञ का तात्पर्य है- त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान् सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है। वायु शोधन से सबको आरोग्यवर्धक साँस लेने का अवसर मिलता है। हवन हुए पदार्थ् वायुभूत होकर प्राणिमात्र को प्राप्त होते हैं और उनके स्वास्थ्यवर्धन, रोग निवारण में सहायक होते हैं। यज्ञ काल में उच्चरित वेद मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर लोगों के अंतःकरण को सात्विक एवं शुद्ध बनाती है। इस प्रकार थोड़े ही खर्च एवं प्रयत्न से यज्ञकर्ताओं द्वारा संसार की बड़ी सेवा बन पड़ती है (12)। आध्यात्मिक पर्यटन का क्षेत्र व्यापक हैं, जिसमें यज्ञ का अहम् योगदान है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्त्व करता हैं। आज राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस ओर रूचि उत्त्पन्न हो रही है। पर्यटन जिज्ञासुओं के लिए, आध्यात्मिक पर्यटन एवं यज्ञ पर शोध की अपार संभावनाएं है।

 

उपंसहार

भारत में तीर्थों की स्थापना वहाँ- वहाँ हुई है जहाँ- जहाँ छोटे-बड़े यज्ञ आयोजित हुए है। प्रयाग शब्द में से उपसर्ग प्र को हटा देने पर ‘‘याग’’ शब्द रह जाता है। याग अर्थाग यज्ञ की महत्ता के कारण वह स्थान तीर्थराज बना। तीर्थों का उद्भव यज्ञों से हुआ है। जिस स्थान पर यज्ञ होत है वह स्थान तीर्थ बन जाता है। पुराण, वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में जिस स्थान पर यज्ञ संपादित हुए है उस स्थान को तीर्थ की संज्ञा दी है। अत्रापि भारतश्रेष्ठ जम्बूद्वीपे महामुने। यतो कर्म भूरेषा यथोऽन्या भोग भूमयः।। (ब्रह्म पुराण, अध्याय 18, श्लोक 23) जम्बूद्वीप में भारत वर्ष श्रेष्ठ है। यज्ञों की प्रधानता के कारण इसे कर्मभूमि कहते है तथा यह तीर्थ के समान है।

यज्ञीय परंपरा भारतीय धर्म का मेरूदंड है। भारतीय धर्मानुयायी जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार यज्ञ के माध्यम से करते है। देश विदेश में जब कहीं भी छोटे-बडे़ यज्ञ का आयोजन होता है तब वहाँ दूर-दूर से लोग विशेष उद्देश्यों के साथ आते हैं यह संख्या इकाई, दहाई से लेकर लाखों अथवा करोड़ों तक पहुँच जाती है। जिससे आध्यात्मिक पर्यटन को बढ़ावा मिलता ही है।

 

सन्दर्भ

  1. पारशर अ. उत्तराखण्ड में स्वास्थ्य पर्यटन के स्वरूप का समीक्षात्मक अध्ययन-ऋशिकेष के विषेश सन्दर्भ में. पी.एच.डी. शोध, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार, 2006;अध्याय 4. पृ.56
  2. पारिख शि. बुद्ध पर्यटन के सांस्कृतिक प्रभाव का अध्ययनः कुशीनगर के विशेष संदर्भ में. पी.एच.डी. शोध, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार, 2012;अध्याय 2. पृ.124
  3. सुभाष कु. राजसूय यज्ञ: सिद्धान्त और परम्परा एक अध्ययन. पी.एच.डी. शोध, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक, हरियाणा, 2009.
  4. शास्त्री का. संपादक. चरक संहिता (2/2/29). चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी. 2006.
  5. ब्रह्मवर्चस, संपादक. वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य वांग्मय 25 यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान. अखण्ड ज्योति संस्थान-मथुरा, 1997. पृ. 3.14
  6. शर्मा श्री. विज्ञान और अध्यात्मः परस्पर पूरक. अखण्ड ज्योति संस्थान-मथुरा, 1998. पृ. 5-7
  7. ब्रह्मवर्चस, संपादक. वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य वांग्मय तीर्थ सेवन: क्यों और कैसे में: तीर्थ परम्परा - पावन यज्ञ. अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा. 1998. पृ. 6-10
  8. ब्रह्मवर्चस, संपादक. वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य वांग्मय 26 यज्ञ-एक समग्र उपचार प्रक्रिया. अखण्ड ज्योति संस्थान-मथुरा, 2012. पृ. 10.3
  9. कृष्णा सं. झारखंड के पर्व, त्योहार, मेले और पर्यटन स्थल. दिल्ली. 2013. पृ. 67-68
  10. पंड्या प्र. युग गीता (खंड 3), श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट, हरिद्वार. 2011. पृ. 135
  1. पाण्डेय मो. आध्यात्मिक पर्यटन का विकास एवं संभावनाएं शांतिकुंज के सन्दर्भ में. पी.एच.डी. शोध, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार, 2012;अध्याय 4. पृ. 96
  1. रामसुखदास स्वा, टीकाकार. श्रीमद्भगवदगीता. अध्याय 4 श्लोक 31. गीताप्रेस गोरखपुर. 2010:335